Post – 2020-08-25

विचार की सामाजिकता

शीर्षक गलत हो गया। त्रिलोचन जी की एक पंक्ति है, सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ भाषा, उसी सॉनेट में वह भाषाओं के अगम समुद्रों का अवगााहन करने का दावा भी करते हैं। कुछ दूर तक उनका दावा सही भी है।
रामविलास जी ने कहीं यह दावा नहीं किया परंतु उनके लेखन से यह ध्वनित होता है सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ समाज, और यह दावा पूरी तरह ठीक है। भाषा पर उनकी पहली पुस्तक का नाम है भाषा और समाज। केवल भाषा की ही नहीं, शिक्षा, राजनीति, अर्थनीति, कला, विज्ञान, दर्शन, सभी की कसौटी समाज। समाजवाद और साम्यवादी दल इसके अपवाद न थे। यदि समाज-हित में बाधक है तो न तो वह समाजवादी हो सकता है न साम्यवादी। यदि इनमें से कोई भी समाज सापेक्ष नहीं है तो नाम से वह जो कुछ है, वह पाखंड है। जो कुछ होने का दावा करता है, वह वस्तुतः है नहीं। अग्नि में ताप नहीं है, तो वह आग नहीं हो सकती, आग की नुमाइश हो सकती है।
एक दूसरी बात जो उनकी चेतना का अभिन्न अंग है, वह है, प्रतिभा नहीं, श्रम से संभव होती हैं, महान उपलब्धियां।
दोनों बातें इतनी सही हैं कि इन पर बहस करना समय की बर्बादी है, और सही होने के बाद भी यह कितनी गलत हो सकती है इसे भी रामविलास जी के लेखन से ही समझा जा सकता है। इसके विस्तार में जाएं तो यह बात समझ में आने की जगह और उलझ जाएगी।
रामविलास जी जब अपनी मृत्यु शैया पर पड़ गए थे तो मैंने एकांत में उन्हें वचन दिया था, मैं आप पर लिखूंगा। मुझे पता था कि वह चाहते थे कि मैं उनके कृतित्व पर लिखूं। इसलिए उनके होठों पर जो चमक आई थी उसे मैं भूल नहीं सकता। अपनी इस प्रतिज्ञा का मैं अकेला गवाह हूँ, कई बार कोशिश करने के बाद भी (आज से पन्द्रह साल पहले ऐसे ही एक अधूरे प्रयास में 150 पन्ने लिख डाले थे) यह काम पूरा न कर पाने की ग्लानि को भी मेरे अतिरिक्त कोई दूसरा न जानता होगा।
डॉ राधा वल्लभ त्रिपाठी ने मध्य भारत साहित्य अकादमी के मुखपत्र के रामविलास शर्मा पर केंद्रित विशेषांक निकालने का निश्चय किया और उसमें मेरे सहयोग की अपेक्षा की तो आमंत्रण को स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं सकता था, सोचा यही अवसर है जो इस लेख के अतिरिक्त रामविलास जी पर विस्तार से लिखने की प्रेरणा दे सकता है। यही वह जरूरी काम था जो रुका पड़ा था जिसे पूरा करने के लिए लेखमाला को स्थगित करना पड़ा। विडंबना कवि पोप वाली – पा पा पिटी टेक. आइ विल नो मोर वर्सेज मेक। लिखना स्थगित भी किया और लिख भी रहा हूँ उसी टाइम लाइन पर।
रामविलास जी की आलोचना नहीं हुई। उनकी निंदा होती रही। उनकी अधिकांश स्थापनाएं ठीक वे ही थीं जो मेरी, इसलिए प्रायः मुझे रामविलास जी के समर्थन में खड़ा होना पड़ा, जो सच होते हुए भी झूठ है। मैं उनके बचाव में नहीं अपने बचाव में खड़ा होता था। रामविलास जी मेरे कवच थे, उनके ऊपर किए जाने वाले प्रहारों के कारण मैं पूरी तरह सुरक्षित था, उपेक्षित फिर भी नहीं था, इसलिए कोई असंतोष नहीं था। परंतु यदि मैं सोचता कि लिखते समय उन्हीं पढ़ी हुई चीजों का अर्थ बदल जाएगा तो लेख लिखने के लिए भी तैयार न होता।
हम पिछली पोस्ट में नासमझी के एक दूसरे रूप पर बात करना चाहते थे। उसे आगे बढ़ाया तो उसके परिणाम से चौंक गया। संभव है आप भी चौंक उठें।
2
यथार्थ का कोई भी रूप इतना जटिल होता है कि परिणाम के बाद ही पता चलता है कि हमने जो उसको जिस रूप में समझा थाया था वह सही था या नहीं। प्रायः हम जिसे समाधान समझते हैं वह समस्या को सुलझाने की जगह नई समस्याएँ खड़ी कर देता है या पुरानी को और उलझा देता है । इसलिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी मेंं हम आगे बढ़ते हैं और मानविकी में घूम-घुमेला ही जारी नहीे रहता, कई बार चक्कर खाते हुए पीछे भी चले जाते है।
मैंने पिछली पोस्ट में एक उलटबांसी जैसी बात कही थी कि रामविलास जी की बहुत सुलझा कर रखी गई सही बातों को भी समझने में कठिनाई होती है और इस कमी को रामविलास जी भी नहीं समझ पाते। कारण, हम जिन बातों को जानते हैं उनको नए सिरे से कोई समझाने चले तो उससे ज्ञान नहीं बढ़ता, थकान पैदा होती है। जिन्हें हम पारिभाषिक शब्द कहते हैं, वे विस्तृत व्याख्याओं के सार रूप होते हैं। यदि हम यह सोच कर कि सामान्यतः लोगों को तकनीकी शब्दों का आशय पता नहीं होता, उनसे बचना चाहें तो उनकी व्याख्याओं का दायरा इतना फैल जाएगा कि शब्द समझ में आएंगे, इबारतों के साथ कोई समस्या न होगी, परंतु कहा क्या गया है, यह समझ में नहीं आएगा। जब कोई व्यक्ति अधिक विस्तार में जाकर किसी बात को समझाना चाहता है तो हम अक्सर उससे कहते हैं कि आप कहना क्या चाहते हैं। अर्थात आपके विस्तार से बात समझ नहीं आ रही है, संक्षेप में कहे तो समझ में आ जाएगी। रामविलास जी मानते हैं दुर्बोधता की समस्या पारिभाषिक शब्दों से पैदा होती है, यदि सरल शब्दों में कठिन विचारों को रखा जाए तो साधारण लोगों को भी किसी भी विषय का ज्ञान हो सकता। भाषा विज्ञान जैसे विषय को भी सभी के लिए रुचिकर बनाया जा सकता है। समझाने के प्रयत्न में जिस बात को वह दो पन्नों में कहते हैं और फिर भी समझ में नहीं आती उसे यदि 2-4 वाक्यों में कहा जाए तो वह बात अधिक आसानी से समझ में भी आ जाएगी और लंबे समय तक हमारी याददाश्त में भी बनी रहेगी। इस बात को रामविलास जी आजीवन नहीं समझ पाए और प्रस्तुति के इस दोष के कारण उनके विचारों को समझने में उनके प्रशंसकों को भी कठिनाई होती रही।
इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करना ठीक रहेगा। यूरोप की भाषाओं में संख्या मानों की प्रस्तुति के विषय में वह लिखते हैं:
“दस के बाद हम गिनते हैं ग्यारह, बारह ….संख्यावाचक शब्दों की विशेषता यह है कि दहाई का अंक बाद आता है और उसमें जितनी वृद्धि होती है, अंक पहले रहता है। यही पद्धति संस्कृत में है। एकादश, द्वादश,…। ग्रीक में ग्यारह-बारह के लिए हेन्देका, दोदेका शब्द हैं। … पचीस के लिए एइकोसी पेंते (बीस पाँच) , छब्बीस के लिए एइकोसी हेक्स। —”
फिर वह अंग्रेजी के उदाहरण इसी विस्तार से प्रस्तुत करते हैं:
“अंग्रेजी में दस के बाद –…..
यही बात वह लातिन के प्रयोगों से निरूपित करते हैं:
“लैटिन में … ग्यारह, बारह, तेरह के लिए ऊनदेकिम, दुओदेकिन, त्रेदेकिम शब्द हैं, किन्तु बीस के बाद बीगीन्ती ऊनुस, बीगिन्ती दुओ आदि रूप आरंभ होते हैं। 98
रूसी में उन्नीस तक संस्कृत का सा क्रम चलता है, लेकिन इक्कीस के लिए द्वाद्सत-अदीन – यूरोप अन्य भाषाओं वाला क्रम चलने लगता है।97
इसे ही रूसी के विषय में उदाहृत करते हैं: “रूसी में उन्नीस तक संसकृत का क्रम चलता है,….” फिर जर्मन डेनिश फ्रांसीसी, पुर्तगाली, के उदाहरण आते हैं। वह
आगे बताते हैं, “ चीनी पद्धति यूरोपीय पद्धति से मिलती जुलती है और अधिक सुसंगत नहीं है उसमें ग्यारह बारह के लिए भी शिह(दस) में ई (एक), एर(दो) जोड़े जाते हैं। चीनी जैसा ही नियम राहुल द्रविड़ भाषाओं में है, यथा तमिल में पत्तु – दस, पदिनोण्णु –ग्यारह।….
और इसके बाद लिखते हैं, “साधारणतः यूरोप की भाषाओं में दहाई की संख्या को पहले और जोड़ी जाने वाली संख्या को बाद में रखने की प्रवृत्ति है। कुछ में ग्यारह, बारह; कुछ में पन्द्रह, कुछ में उन्नीस तक संस्कृत का क्रम चलता है। बाद में उनकी मूल प्रवृत्ति प्रकट हो जाती है जो दहाई को पहले रखती है। कुछ भाषाएं ‘और’ से काम लेकर दहाई को बाद में रखती हैं यह सामान्य नियम केवल संस्कृत और उससे संबंधित भारतीय भाषाओं में देखा जाता है।…. स्पष्ट है कि ग्रीक-लैटिन फ्रांसीसी-अंग्रेजी आदि भाषाओं में दो तरह की भाव प्रकृति से संख्यावाचक शब्द रूपों का गठन हुआ है” (भाषा और समाज, 1989, पृ. 96- 97)।
हमें शिकायत इस बात की है इतने विस्तार में जाने के बाद भी वह जो कहना था उसे नहीं कह पाए, और जिस निष्कर्ष पर पहुंचे वह सही नहीं है। यदि कहते , “संख्या मान की दो प्रणालियां हैं। एक में दहाई पहले आती है और इकाई बाद में। यह प्रणाली द्रविड़ भाषाओं में और चीनी में देखने में आती है। दूसरी प्रणाली में, इकाई पहले आती है और दहाई बाद में। यह संस्कृत और हिंदी सहित दूसरी उत्तर भारतीय भाषाओं में पाई जाती है। यूरोपीय भाषाओं में दोनों का घालमेल देखने में आता है। उन्नीस तक संस्कृत प्रणाली चलती है –इकाई पहले और दहाई बाद में — और उसके बाद क्रम बदलकर वह हो जाता है जो द्रविड़ भाषा में पाया जाता है। इसका अर्थ है, यूरोप की भाषाएं शुद्ध नहीं हैं। उनमें घालमेल हुआ है। आर्य और द्रविड़ दोनों तत्वों का प्रवेश हुआ है। और साथ ही इसका यह अर्थ भी है केवल स्वामी (आर्य) वर्ग की भाषा और संस्कृति का प्रसार यूरोप तक नहीं हुआ था, उसकी सेवा में लगे हुए असुर (अनार्य) – द्रविड़ और मुंडारी बोलने वाले लोगों की भाषा और संस्कृति का समानांतर प्रसार हुआ था। द्रविड़ और चीनी में मिलने वाली समानता का कारण मुंडारी तत्वों का जिन्हें मेलानेशियन या दक्षिणदेशीय कहा जाता है – भारत सहित चीन और जापान तक प्रवेश रहा है।” तो बात अधिक सलीके से, संक्षेप में और बोधगम्य रूप में प्रस्तुत की जा सकती थी।

Post – 2020-08-25

विचार की सामाजिकता

शीर्षक गलत हो गया। त्रिलोचन जी की एक पंक्ति है, सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ भाषा, उसी सॉनेट में वह भाषाओं के अगम समुद्रों का अवगााहन करने का दावा भी करते हैं। कुछ दूर तक उनका दावा सही भी है।
रामविलास जी ने कहीं यह दावा नहीं किया परंतु उनके लेखन से यह ध्वनित होता है सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ समाज, और यह दावा पूरी तरह ठीक है। भाषा पर उनकी पहली पुस्तक का नाम है भाषा और समाज। केवल भाषा की ही नहीं, शिक्षा, राजनीति, अर्थनीति, कला, विज्ञान, दर्शन, सभी की कसौटी समाज। समाजवाद और साम्यवादी दल इसके अपवाद न थे। यदि समाज-हित में बाधक है तो न तो वह समाजवादी हो सकता है न साम्यवादी। यदि इनमें से कोई भी समाज सापेक्ष नहीं है तो नाम से वह जो कुछ है, वह पाखंड है। जो कुछ होने का दावा करता है, वह वस्तुतः है नहीं। अग्नि में ताप नहीं है, तो वह आग नहीं हो सकती, आग की नुमाइश हो सकती है।
एक दूसरी बात जो उनकी चेतना का अभिन्न अंग है, वह है, प्रतिभा नहीं, श्रम से संभव होती हैं, महान उपलब्धियां।
दोनों बातें इतनी सही हैं कि इन पर बहस करना समय की बर्बादी है, और सही होने के बाद भी यह कितनी गलत हो सकती है इसे भी रामविलास जी के लेखन से ही समझा जा सकता है। इसके विस्तार में जाएं तो यह बात समझ में आने की जगह और उलझ जाएगी।
रामविलास जी जब अपनी मृत्यु शैया पर पड़ गए थे तो मैंने एकांत में उन्हें वचन दिया था, मैं आप पर लिखूंगा। मुझे पता था कि वह चाहते थे कि मैं उनके कृतित्व पर लिखूं। इसलिए उनके होठों पर जो चमक आई थी उसे मैं भूल नहीं सकता। अपनी इस प्रतिज्ञा का मैं अकेला गवाह हूँ, कई बार कोशिश करने के बाद भी (आज से पन्द्रह साल पहले ऐसे ही एक अधूरे प्रयास में 150 पन्ने लिख डाले थे) यह काम पूरा न कर पाने की ग्लानि को भी मेरे अतिरिक्त कोई दूसरा न जानता होगा।
डॉ राधा वल्लभ त्रिपाठी ने मध्य भारत साहित्य अकादमी के मुखपत्र के रामविलास शर्मा पर केंद्रित विशेषांक निकालने का निश्चय किया और उसमें मेरे सहयोग की अपेक्षा की तो आमंत्रण को स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं सकता था, सोचा यही अवसर है जो इस लेख के अतिरिक्त रामविलास जी पर विस्तार से लिखने की प्रेरणा दे सकता है। यही वह जरूरी काम था जो रुका पड़ा था जिसे पूरा करने के लिए लेखमाला को स्थगित करना पड़ा। विडंबना कवि पोप वाली – पा पा पिटी टेक. आइ विल नो मोर वर्सेज मेक। लिखना स्थगित भी किया और लिख भी रहा हूँ उसी टाइम लाइन पर।
रामविलास जी की आलोचना नहीं हुई। उनकी निंदा होती रही। उनकी अधिकांश स्थापनाएं ठीक वे ही थीं जो मेरी, इसलिए प्रायः मुझे रामविलास जी के समर्थन में खड़ा होना पड़ा, जो सच होते हुए भी झूठ है। मैं उनके बचाव में नहीं अपने बचाव में खड़ा होता था। रामविलास जी मेरे कवच थे, उनके ऊपर किए जाने वाले प्रहारों के कारण मैं पूरी तरह सुरक्षित था, उपेक्षित फिर भी नहीं था, इसलिए कोई असंतोष नहीं था। परंतु यदि मैं सोचता कि लिखते समय उन्हीं पढ़ी हुई चीजों का अर्थ बदल जाएगा तो लेख लिखने के लिए भी तैयार न होता।
हम पिछली पोस्ट में नासमझी के एक दूसरे रूप पर बात करना चाहते थे। उसे आगे बढ़ाया तो उसके परिणाम से चौंक गया। संभव है आप भी चौंक उठें।
2
यथार्थ का कोई भी रूप इतना जटिल होता है कि परिणाम के बाद ही पता चलता है कि हमने जो उसको जिस रूप में समझा थाया था वह सही था या नहीं। प्रायः हम जिसे समाधान समझते हैं वह समस्या को सुलझाने की जगह नई समस्याएँ खड़ी कर देता है या पुरानी को और उलझा देता है । इसलिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी मेंं हम आगे बढ़ते हैं और मानविकी में घूम-घुमेला ही जारी नहीे रहता, कई बार चक्कर खाते हुए पीछे भी चले जाते है।
मैंने पिछली पोस्ट में एक उलटबांसी जैसी बात कही थी कि रामविलास जी की बहुत सुलझा कर रखी गई सही बातों को भी समझने में कठिनाई होती है और इस कमी को रामविलास जी भी नहीं समझ पाते। कारण, हम जिन बातों को जानते हैं उनको नए सिरे से कोई समझाने चले तो उससे ज्ञान नहीं बढ़ता, थकान पैदा होती है। जिन्हें हम पारिभाषिक शब्द कहते हैं, वे विस्तृत व्याख्याओं के सार रूप होते हैं। यदि हम यह सोच कर कि सामान्यतः लोगों को तकनीकी शब्दों का आशय पता नहीं होता, उनसे बचना चाहें तो उनकी व्याख्याओं का दायरा इतना फैल जाएगा कि शब्द समझ में आएंगे, इबारतों के साथ कोई समस्या न होगी, परंतु कहा क्या गया है, यह समझ में नहीं आएगा। जब कोई व्यक्ति अधिक विस्तार में जाकर किसी बात को समझाना चाहता है तो हम अक्सर उससे कहते हैं कि आप कहना क्या चाहते हैं। अर्थात आपके विस्तार से बात समझ नहीं आ रही है, संक्षेप में कहे तो समझ में आ जाएगी। रामविलास जी मानते हैं दुर्बोधता की समस्या पारिभाषिक शब्दों से पैदा होती है, यदि सरल शब्दों में कठिन विचारों को रखा जाए तो साधारण लोगों को भी किसी भी विषय का ज्ञान हो सकता। भाषा विज्ञान जैसे विषय को भी सभी के लिए रुचिकर बनाया जा सकता है। समझाने के प्रयत्न में जिस बात को वह दो पन्नों में कहते हैं और फिर भी समझ में नहीं आती उसे यदि 2-4 वाक्यों में कहा जाए तो वह बात अधिक आसानी से समझ में भी आ जाएगी और लंबे समय तक हमारी याददाश्त में भी बनी रहेगी। इस बात को रामविलास जी आजीवन नहीं समझ पाए और प्रस्तुति के इस दोष के कारण उनके विचारों को समझने में उनके प्रशंसकों को भी कठिनाई होती रही।
इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करना ठीक रहेगा। यूरोप की भाषाओं में संख्या मानों की प्रस्तुति के विषय में वह लिखते हैं:
“दस के बाद हम गिनते हैं ग्यारह, बारह ….संख्यावाचक शब्दों की विशेषता यह है कि दहाई का अंक बाद आता है और उसमें जितनी वृद्धि होती है, अंक पहले रहता है। यही पद्धति संस्कृत में है। एकादश, द्वादश,…। ग्रीक में ग्यारह-बारह के लिए हेन्देका, दोदेका शब्द हैं। … पचीस के लिए एइकोसी पेंते (बीस पाँच) , छब्बीस के लिए एइकोसी हेक्स। —”
फिर वह अंग्रेजी के उदाहरण इसी विस्तार से प्रस्तुत करते हैं:
“अंग्रेजी में दस के बाद –…..
यही बात वह लातिन के प्रयोगों से निरूपित करते हैं:
“लैटिन में … ग्यारह, बारह, तेरह के लिए ऊनदेकिम, दुओदेकिन, त्रेदेकिम शब्द हैं, किन्तु बीस के बाद बीगीन्ती ऊनुस, बीगिन्ती दुओ आदि रूप आरंभ होते हैं। 98
रूसी में उन्नीस तक संस्कृत का सा क्रम चलता है, लेकिन इक्कीस के लिए द्वाद्सत-अदीन – यूरोप अन्य भाषाओं वाला क्रम चलने लगता है।97
इसे ही रूसी के विषय में उदाहृत करते हैं: “रूसी में उन्नीस तक संसकृत का क्रम चलता है,….” फिर जर्मन डेनिश फ्रांसीसी, पुर्तगाली, के उदाहरण आते हैं। वह
आगे बताते हैं, “ चीनी पद्धति यूरोपीय पद्धति से मिलती जुलती है और अधिक सुसंगत नहीं है उसमें ग्यारह बारह के लिए भी शिह(दस) में ई (एक), एर(दो) जोड़े जाते हैं। चीनी जैसा ही नियम राहुल द्रविड़ भाषाओं में है, यथा तमिल में पत्तु – दस, पदिनोण्णु –ग्यारह।….
और इसके बाद लिखते हैं, “साधारणतः यूरोप की भाषाओं में दहाई की संख्या को पहले और जोड़ी जाने वाली संख्या को बाद में रखने की प्रवृत्ति है। कुछ में ग्यारह, बारह; कुछ में पन्द्रह, कुछ में उन्नीस तक संस्कृत का क्रम चलता है। बाद में उनकी मूल प्रवृत्ति प्रकट हो जाती है जो दहाई को पहले रखती है। कुछ भाषाएं ‘और’ से काम लेकर दहाई को बाद में रखती हैं यह सामान्य नियम केवल संस्कृत और उससे संबंधित भारतीय भाषाओं में देखा जाता है।…. स्पष्ट है कि ग्रीक-लैटिन फ्रांसीसी-अंग्रेजी आदि भाषाओं में दो तरह की भाव प्रकृति से संख्यावाचक शब्द रूपों का गठन हुआ है” (भाषा और समाज, 1989, पृ. 96- 97)।
हमें शिकायत इस बात की है इतने विस्तार में जाने के बाद भी वह जो कहना था उसे नहीं कह पाए, और जिस निष्कर्ष पर पहुंचे वह सही नहीं है। यदि कहते , “संख्या मान की दो प्रणालियां हैं। एक में दहाई पहले आती है और इकाई बाद में। यह प्रणाली द्रविड़ भाषाओं में और चीनी में देखने में आती है। दूसरी प्रणाली में, इकाई पहले आती है और दहाई बाद में। यह संस्कृत और हिंदी सहित दूसरी उत्तर भारतीय भाषाओं में पाई जाती है। यूरोपीय भाषाओं में दोनों का घालमेल देखने में आता है। उन्नीस तक संस्कृत प्रणाली चलती है –इकाई पहले और दहाई बाद में — और उसके बाद क्रम बदलकर वह हो जाता है जो द्रविड़ भाषा में पाया जाता है। इसका अर्थ है, यूरोप की भाषाएं शुद्ध नहीं हैं। उनमें घालमेल हुआ है। आर्य और द्रविड़ दोनों तत्वों का प्रवेश हुआ है। और साथ ही इसका यह अर्थ भी है केवल स्वामी (आर्य) वर्ग की भाषा और संस्कृति का प्रसार यूरोप तक नहीं हुआ था, उसकी सेवा में लगे हुए असुर (अनार्य) – द्रविड़ और मुंडारी बोलने वाले लोगों की भाषा और संस्कृति का समानांतर प्रसार हुआ था। द्रविड़ और चीनी में मिलने वाली समानता का कारण मुंडारी तत्वों का जिन्हें मेलानेशियन या दक्षिणदेशीय कहा जाता है – भारत सहित चीन और जापान तक प्रवेश रहा है।” तो बात अधिक सलीके से, संक्षेप में और बोधगम्य रूप में प्रस्तुत की जा सकती थी।

Post – 2020-08-25

विचार की सामाजिकता

शीर्षक गलत हो गया। त्रिलोचन जी की एक पंक्ति है, सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ भाषा, उसी सॉनेट में वह भाषाओं के अगम समुद्रों का अवगााहन करने का दावा भी करते हैं। कुछ दूर तक उनका दावा सही भी है।
रामविलास जी ने कहीं यह दावा नहीं किया परंतु उनके लेखन से यह ध्वनित होता है सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ समाज, और यह दावा पूरी तरह ठीक है। भाषा पर उनकी पहली पुस्तक का नाम है भाषा और समाज। केवल भाषा की ही नहीं, शिक्षा, राजनीति, अर्थनीति, कला, विज्ञान, दर्शन, सभी की कसौटी समाज। समाजवाद और साम्यवादी दल इसके अपवाद न थे। यदि समाज-हित में बाधक है तो न तो वह समाजवादी हो सकता है न साम्यवादी। यदि इनमें से कोई भी समाज सापेक्ष नहीं है तो नाम से वह जो कुछ है, वह पाखंड है। जो कुछ होने का दावा करता है, वह वस्तुतः है नहीं। अग्नि में ताप नहीं है, तो वह आग नहीं हो सकती, आग की नुमाइश हो सकती है।
एक दूसरी बात जो उनकी चेतना का अभिन्न अंग है, वह है, प्रतिभा नहीं, श्रम से संभव होती हैं, महान उपलब्धियां।
दोनों बातें इतनी सही हैं कि इन पर बहस करना समय की बर्बादी है, और सही होने के बाद भी यह कितनी गलत हो सकती है इसे भी रामविलास जी के लेखन से ही समझा जा सकता है। इसके विस्तार में जाएं तो यह बात समझ में आने की जगह और उलझ जाएगी।
रामविलास जी जब अपनी मृत्यु शैया पर पड़ गए थे तो मैंने एकांत में उन्हें वचन दिया था, मैं आप पर लिखूंगा। मुझे पता था कि वह चाहते थे कि मैं उनके कृतित्व पर लिखूं। इसलिए उनके होठों पर जो चमक आई थी उसे मैं भूल नहीं सकता। अपनी इस प्रतिज्ञा का मैं अकेला गवाह हूँ, कई बार कोशिश करने के बाद भी (आज से पन्द्रह साल पहले ऐसे ही एक अधूरे प्रयास में 150 पन्ने लिख डाले थे) यह काम पूरा न कर पाने की ग्लानि को भी मेरे अतिरिक्त कोई दूसरा न जानता होगा।
डॉ राधा वल्लभ त्रिपाठी ने मध्य भारत साहित्य अकादमी के मुखपत्र के रामविलास शर्मा पर केंद्रित विशेषांक निकालने का निश्चय किया और उसमें मेरे सहयोग की अपेक्षा की तो आमंत्रण को स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं सकता था, सोचा यही अवसर है जो इस लेख के अतिरिक्त रामविलास जी पर विस्तार से लिखने की प्रेरणा दे सकता है। यही वह जरूरी काम था जो रुका पड़ा था जिसे पूरा करने के लिए लेखमाला को स्थगित करना पड़ा। विडंबना कवि पोप वाली – पा पा पिटी टेक. आइ विल नो मोर वर्सेज मेक। लिखना स्थगित भी किया और लिख भी रहा हूँ उसी टाइम लाइन पर।
रामविलास जी की आलोचना नहीं हुई। उनकी निंदा होती रही। उनकी अधिकांश स्थापनाएं ठीक वे ही थीं जो मेरी, इसलिए प्रायः मुझे रामविलास जी के समर्थन में खड़ा होना पड़ा, जो सच होते हुए भी झूठ है। मैं उनके बचाव में नहीं अपने बचाव में खड़ा होता था। रामविलास जी मेरे कवच थे, उनके ऊपर किए जाने वाले प्रहारों के कारण मैं पूरी तरह सुरक्षित था, उपेक्षित फिर भी नहीं था, इसलिए कोई असंतोष नहीं था। परंतु यदि मैं सोचता कि लिखते समय उन्हीं पढ़ी हुई चीजों का अर्थ बदल जाएगा तो लेख लिखने के लिए भी तैयार न होता।
हम पिछली पोस्ट में नासमझी के एक दूसरे रूप पर बात करना चाहते थे। उसे आगे बढ़ाया तो उसके परिणाम से चौंक गया। संभव है आप भी चौंक उठें।
2
यथार्थ का कोई भी रूप इतना जटिल होता है कि परिणाम के बाद ही पता चलता है कि हमने जो उसको जिस रूप में समझा थाया था वह सही था या नहीं। प्रायः हम जिसे समाधान समझते हैं वह समस्या को सुलझाने की जगह नई समस्याएँ खड़ी कर देता है या पुरानी को और उलझा देता है । इसलिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी मेंं हम आगे बढ़ते हैं और मानविकी में घूम-घुमेला ही जारी नहीे रहता, कई बार चक्कर खाते हुए पीछे भी चले जाते है।
मैंने पिछली पोस्ट में एक उलटबांसी जैसी बात कही थी कि रामविलास जी की बहुत सुलझा कर रखी गई सही बातों को भी समझने में कठिनाई होती है और इस कमी को रामविलास जी भी नहीं समझ पाते। कारण, हम जिन बातों को जानते हैं उनको नए सिरे से कोई समझाने चले तो उससे ज्ञान नहीं बढ़ता, थकान पैदा होती है। जिन्हें हम पारिभाषिक शब्द कहते हैं, वे विस्तृत व्याख्याओं के सार रूप होते हैं। यदि हम यह सोच कर कि सामान्यतः लोगों को तकनीकी शब्दों का आशय पता नहीं होता, उनसे बचना चाहें तो उनकी व्याख्याओं का दायरा इतना फैल जाएगा कि शब्द समझ में आएंगे, इबारतों के साथ कोई समस्या न होगी, परंतु कहा क्या गया है, यह समझ में नहीं आएगा। जब कोई व्यक्ति अधिक विस्तार में जाकर किसी बात को समझाना चाहता है तो हम अक्सर उससे कहते हैं कि आप कहना क्या चाहते हैं। अर्थात आपके विस्तार से बात समझ नहीं आ रही है, संक्षेप में कहे तो समझ में आ जाएगी। रामविलास जी मानते हैं दुर्बोधता की समस्या पारिभाषिक शब्दों से पैदा होती है, यदि सरल शब्दों में कठिन विचारों को रखा जाए तो साधारण लोगों को भी किसी भी विषय का ज्ञान हो सकता। भाषा विज्ञान जैसे विषय को भी सभी के लिए रुचिकर बनाया जा सकता है। समझाने के प्रयत्न में जिस बात को वह दो पन्नों में कहते हैं और फिर भी समझ में नहीं आती उसे यदि 2-4 वाक्यों में कहा जाए तो वह बात अधिक आसानी से समझ में भी आ जाएगी और लंबे समय तक हमारी याददाश्त में भी बनी रहेगी। इस बात को रामविलास जी आजीवन नहीं समझ पाए और प्रस्तुति के इस दोष के कारण उनके विचारों को समझने में उनके प्रशंसकों को भी कठिनाई होती रही।
इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करना ठीक रहेगा। यूरोप की भाषाओं में संख्या मानों की प्रस्तुति के विषय में वह लिखते हैं:
“दस के बाद हम गिनते हैं ग्यारह, बारह ….संख्यावाचक शब्दों की विशेषता यह है कि दहाई का अंक बाद आता है और उसमें जितनी वृद्धि होती है, अंक पहले रहता है। यही पद्धति संस्कृत में है। एकादश, द्वादश,…। ग्रीक में ग्यारह-बारह के लिए हेन्देका, दोदेका शब्द हैं। … पचीस के लिए एइकोसी पेंते (बीस पाँच) , छब्बीस के लिए एइकोसी हेक्स। —”
फिर वह अंग्रेजी के उदाहरण इसी विस्तार से प्रस्तुत करते हैं:
“अंग्रेजी में दस के बाद –…..
यही बात वह लातिन के प्रयोगों से निरूपित करते हैं:
“लैटिन में … ग्यारह, बारह, तेरह के लिए ऊनदेकिम, दुओदेकिन, त्रेदेकिम शब्द हैं, किन्तु बीस के बाद बीगीन्ती ऊनुस, बीगिन्ती दुओ आदि रूप आरंभ होते हैं। 98
रूसी में उन्नीस तक संस्कृत का सा क्रम चलता है, लेकिन इक्कीस के लिए द्वाद्सत-अदीन – यूरोप अन्य भाषाओं वाला क्रम चलने लगता है।97
इसे ही रूसी के विषय में उदाहृत करते हैं: “रूसी में उन्नीस तक संसकृत का क्रम चलता है,….” फिर जर्मन डेनिश फ्रांसीसी, पुर्तगाली, के उदाहरण आते हैं। वह
आगे बताते हैं, “ चीनी पद्धति यूरोपीय पद्धति से मिलती जुलती है और अधिक सुसंगत नहीं है उसमें ग्यारह बारह के लिए भी शिह(दस) में ई (एक), एर(दो) जोड़े जाते हैं। चीनी जैसा ही नियम राहुल द्रविड़ भाषाओं में है, यथा तमिल में पत्तु – दस, पदिनोण्णु –ग्यारह।….
और इसके बाद लिखते हैं, “साधारणतः यूरोप की भाषाओं में दहाई की संख्या को पहले और जोड़ी जाने वाली संख्या को बाद में रखने की प्रवृत्ति है। कुछ में ग्यारह, बारह; कुछ में पन्द्रह, कुछ में उन्नीस तक संस्कृत का क्रम चलता है। बाद में उनकी मूल प्रवृत्ति प्रकट हो जाती है जो दहाई को पहले रखती है। कुछ भाषाएं ‘और’ से काम लेकर दहाई को बाद में रखती हैं यह सामान्य नियम केवल संस्कृत और उससे संबंधित भारतीय भाषाओं में देखा जाता है।…. स्पष्ट है कि ग्रीक-लैटिन फ्रांसीसी-अंग्रेजी आदि भाषाओं में दो तरह की भाव प्रकृति से संख्यावाचक शब्द रूपों का गठन हुआ है” (भाषा और समाज, 1989, पृ. 96- 97)।
हमें शिकायत इस बात की है इतने विस्तार में जाने के बाद भी वह जो कहना था उसे नहीं कह पाए, और जिस निष्कर्ष पर पहुंचे वह सही नहीं है। यदि कहते , “संख्या मान की दो प्रणालियां हैं। एक में दहाई पहले आती है और इकाई बाद में। यह प्रणाली द्रविड़ भाषाओं में और चीनी में देखने में आती है। दूसरी प्रणाली में, इकाई पहले आती है और दहाई बाद में। यह संस्कृत और हिंदी सहित दूसरी उत्तर भारतीय भाषाओं में पाई जाती है। यूरोपीय भाषाओं में दोनों का घालमेल देखने में आता है। उन्नीस तक संस्कृत प्रणाली चलती है –इकाई पहले और दहाई बाद में — और उसके बाद क्रम बदलकर वह हो जाता है जो द्रविड़ भाषा में पाया जाता है। इसका अर्थ है, यूरोप की भाषाएं शुद्ध नहीं हैं। उनमें घालमेल हुआ है। आर्य और द्रविड़ दोनों तत्वों का प्रवेश हुआ है। और साथ ही इसका यह अर्थ भी है केवल स्वामी (आर्य) वर्ग की भाषा और संस्कृति का प्रसार यूरोप तक नहीं हुआ था, उसकी सेवा में लगे हुए असुर (अनार्य) – द्रविड़ और मुंडारी बोलने वाले लोगों की भाषा और संस्कृति का समानांतर प्रसार हुआ था। द्रविड़ और चीनी में मिलने वाली समानता का कारण मुंडारी तत्वों का जिन्हें मेलानेशियन या दक्षिणदेशीय कहा जाता है – भारत सहित चीन और जापान तक प्रवेश रहा है।” तो बात अधिक सलीके से, संक्षेप में और बोधगम्य रूप में प्रस्तुत की जा सकती थी।

Post – 2020-08-25

विचार की सामाजिकता

शीर्षक गलत हो गया। त्रिलोचन जी की एक पंक्ति है, सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ भाषा, उसी सॉनेट में वह भाषाओं के अगम समुद्रों का अवगााहन करने का दावा भी करते हैं। कुछ दूर तक उनका दावा सही भी है।
रामविलास जी ने कहीं यह दावा नहीं किया परंतु उनके लेखन से यह ध्वनित होता है सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ समाज, और यह दावा पूरी तरह ठीक है। भाषा पर उनकी पहली पुस्तक का नाम है भाषा और समाज। केवल भाषा की ही नहीं, शिक्षा, राजनीति, अर्थनीति, कला, विज्ञान, दर्शन, सभी की कसौटी समाज। समाजवाद और साम्यवादी दल इसके अपवाद न थे। यदि समाज-हित में बाधक है तो न तो वह समाजवादी हो सकता है न साम्यवादी। यदि इनमें से कोई भी समाज सापेक्ष नहीं है तो नाम से वह जो कुछ है, वह पाखंड है। जो कुछ होने का दावा करता है, वह वस्तुतः है नहीं। अग्नि में ताप नहीं है, तो वह आग नहीं हो सकती, आग की नुमाइश हो सकती है।
एक दूसरी बात जो उनकी चेतना का अभिन्न अंग है, वह है, प्रतिभा नहीं, श्रम से संभव होती हैं, महान उपलब्धियां।
दोनों बातें इतनी सही हैं कि इन पर बहस करना समय की बर्बादी है, और सही होने के बाद भी यह कितनी गलत हो सकती है इसे भी रामविलास जी के लेखन से ही समझा जा सकता है। इसके विस्तार में जाएं तो यह बात समझ में आने की जगह और उलझ जाएगी।
रामविलास जी जब अपनी मृत्यु शैया पर पड़ गए थे तो मैंने एकांत में उन्हें वचन दिया था, मैं आप पर लिखूंगा। मुझे पता था कि वह चाहते थे कि मैं उनके कृतित्व पर लिखूं। इसलिए उनके होठों पर जो चमक आई थी उसे मैं भूल नहीं सकता। अपनी इस प्रतिज्ञा का मैं अकेला गवाह हूँ, कई बार कोशिश करने के बाद भी (आज से पन्द्रह साल पहले ऐसे ही एक अधूरे प्रयास में 150 पन्ने लिख डाले थे) यह काम पूरा न कर पाने की ग्लानि को भी मेरे अतिरिक्त कोई दूसरा न जानता होगा।
डॉ राधा वल्लभ त्रिपाठी ने मध्य भारत साहित्य अकादमी के मुखपत्र के रामविलास शर्मा पर केंद्रित विशेषांक निकालने का निश्चय किया और उसमें मेरे सहयोग की अपेक्षा की तो आमंत्रण को स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं सकता था, सोचा यही अवसर है जो इस लेख के अतिरिक्त रामविलास जी पर विस्तार से लिखने की प्रेरणा दे सकता है। यही वह जरूरी काम था जो रुका पड़ा था जिसे पूरा करने के लिए लेखमाला को स्थगित करना पड़ा। विडंबना कवि पोप वाली – पा पा पिटी टेक. आइ विल नो मोर वर्सेज मेक। लिखना स्थगित भी किया और लिख भी रहा हूँ उसी टाइम लाइन पर।
रामविलास जी की आलोचना नहीं हुई। उनकी निंदा होती रही। उनकी अधिकांश स्थापनाएं ठीक वे ही थीं जो मेरी, इसलिए प्रायः मुझे रामविलास जी के समर्थन में खड़ा होना पड़ा, जो सच होते हुए भी झूठ है। मैं उनके बचाव में नहीं अपने बचाव में खड़ा होता था। रामविलास जी मेरे कवच थे, उनके ऊपर किए जाने वाले प्रहारों के कारण मैं पूरी तरह सुरक्षित था, उपेक्षित फिर भी नहीं था, इसलिए कोई असंतोष नहीं था। परंतु यदि मैं सोचता कि लिखते समय उन्हीं पढ़ी हुई चीजों का अर्थ बदल जाएगा तो लेख लिखने के लिए भी तैयार न होता।
हम पिछली पोस्ट में नासमझी के एक दूसरे रूप पर बात करना चाहते थे। उसे आगे बढ़ाया तो उसके परिणाम से चौंक गया। संभव है आप भी चौंक उठें।
2
यथार्थ का कोई भी रूप इतना जटिल होता है कि परिणाम के बाद ही पता चलता है कि हमने जो उसको जिस रूप में समझा थाया था वह सही था या नहीं। प्रायः हम जिसे समाधान समझते हैं वह समस्या को सुलझाने की जगह नई समस्याएँ खड़ी कर देता है या पुरानी को और उलझा देता है । इसलिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी मेंं हम आगे बढ़ते हैं और मानविकी में घूम-घुमेला ही जारी नहीे रहता, कई बार चक्कर खाते हुए पीछे भी चले जाते है।
मैंने पिछली पोस्ट में एक उलटबांसी जैसी बात कही थी कि रामविलास जी की बहुत सुलझा कर रखी गई सही बातों को भी समझने में कठिनाई होती है और इस कमी को रामविलास जी भी नहीं समझ पाते। कारण, हम जिन बातों को जानते हैं उनको नए सिरे से कोई समझाने चले तो उससे ज्ञान नहीं बढ़ता, थकान पैदा होती है। जिन्हें हम पारिभाषिक शब्द कहते हैं, वे विस्तृत व्याख्याओं के सार रूप होते हैं। यदि हम यह सोच कर कि सामान्यतः लोगों को तकनीकी शब्दों का आशय पता नहीं होता, उनसे बचना चाहें तो उनकी व्याख्याओं का दायरा इतना फैल जाएगा कि शब्द समझ में आएंगे, इबारतों के साथ कोई समस्या न होगी, परंतु कहा क्या गया है, यह समझ में नहीं आएगा। जब कोई व्यक्ति अधिक विस्तार में जाकर किसी बात को समझाना चाहता है तो हम अक्सर उससे कहते हैं कि आप कहना क्या चाहते हैं। अर्थात आपके विस्तार से बात समझ नहीं आ रही है, संक्षेप में कहे तो समझ में आ जाएगी। रामविलास जी मानते हैं दुर्बोधता की समस्या पारिभाषिक शब्दों से पैदा होती है, यदि सरल शब्दों में कठिन विचारों को रखा जाए तो साधारण लोगों को भी किसी भी विषय का ज्ञान हो सकता। भाषा विज्ञान जैसे विषय को भी सभी के लिए रुचिकर बनाया जा सकता है। समझाने के प्रयत्न में जिस बात को वह दो पन्नों में कहते हैं और फिर भी समझ में नहीं आती उसे यदि 2-4 वाक्यों में कहा जाए तो वह बात अधिक आसानी से समझ में भी आ जाएगी और लंबे समय तक हमारी याददाश्त में भी बनी रहेगी। इस बात को रामविलास जी आजीवन नहीं समझ पाए और प्रस्तुति के इस दोष के कारण उनके विचारों को समझने में उनके प्रशंसकों को भी कठिनाई होती रही।
इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करना ठीक रहेगा। यूरोप की भाषाओं में संख्या मानों की प्रस्तुति के विषय में वह लिखते हैं:
“दस के बाद हम गिनते हैं ग्यारह, बारह ….संख्यावाचक शब्दों की विशेषता यह है कि दहाई का अंक बाद आता है और उसमें जितनी वृद्धि होती है, अंक पहले रहता है। यही पद्धति संस्कृत में है। एकादश, द्वादश,…। ग्रीक में ग्यारह-बारह के लिए हेन्देका, दोदेका शब्द हैं। … पचीस के लिए एइकोसी पेंते (बीस पाँच) , छब्बीस के लिए एइकोसी हेक्स। —”
फिर वह अंग्रेजी के उदाहरण इसी विस्तार से प्रस्तुत करते हैं:
“अंग्रेजी में दस के बाद –…..
यही बात वह लातिन के प्रयोगों से निरूपित करते हैं:
“लैटिन में … ग्यारह, बारह, तेरह के लिए ऊनदेकिम, दुओदेकिन, त्रेदेकिम शब्द हैं, किन्तु बीस के बाद बीगीन्ती ऊनुस, बीगिन्ती दुओ आदि रूप आरंभ होते हैं। 98
रूसी में उन्नीस तक संस्कृत का सा क्रम चलता है, लेकिन इक्कीस के लिए द्वाद्सत-अदीन – यूरोप अन्य भाषाओं वाला क्रम चलने लगता है।97
इसे ही रूसी के विषय में उदाहृत करते हैं: “रूसी में उन्नीस तक संसकृत का क्रम चलता है,….” फिर जर्मन डेनिश फ्रांसीसी, पुर्तगाली, के उदाहरण आते हैं। वह
आगे बताते हैं, “ चीनी पद्धति यूरोपीय पद्धति से मिलती जुलती है और अधिक सुसंगत नहीं है उसमें ग्यारह बारह के लिए भी शिह(दस) में ई (एक), एर(दो) जोड़े जाते हैं। चीनी जैसा ही नियम राहुल द्रविड़ भाषाओं में है, यथा तमिल में पत्तु – दस, पदिनोण्णु –ग्यारह।….
और इसके बाद लिखते हैं, “साधारणतः यूरोप की भाषाओं में दहाई की संख्या को पहले और जोड़ी जाने वाली संख्या को बाद में रखने की प्रवृत्ति है। कुछ में ग्यारह, बारह; कुछ में पन्द्रह, कुछ में उन्नीस तक संस्कृत का क्रम चलता है। बाद में उनकी मूल प्रवृत्ति प्रकट हो जाती है जो दहाई को पहले रखती है। कुछ भाषाएं ‘और’ से काम लेकर दहाई को बाद में रखती हैं यह सामान्य नियम केवल संस्कृत और उससे संबंधित भारतीय भाषाओं में देखा जाता है।…. स्पष्ट है कि ग्रीक-लैटिन फ्रांसीसी-अंग्रेजी आदि भाषाओं में दो तरह की भाव प्रकृति से संख्यावाचक शब्द रूपों का गठन हुआ है” (भाषा और समाज, 1989, पृ. 96- 97)।
हमें शिकायत इस बात की है इतने विस्तार में जाने के बाद भी वह जो कहना था उसे नहीं कह पाए, और जिस निष्कर्ष पर पहुंचे वह सही नहीं है। यदि कहते , “संख्या मान की दो प्रणालियां हैं। एक में दहाई पहले आती है और इकाई बाद में। यह प्रणाली द्रविड़ भाषाओं में और चीनी में देखने में आती है। दूसरी प्रणाली में, इकाई पहले आती है और दहाई बाद में। यह संस्कृत और हिंदी सहित दूसरी उत्तर भारतीय भाषाओं में पाई जाती है। यूरोपीय भाषाओं में दोनों का घालमेल देखने में आता है। उन्नीस तक संस्कृत प्रणाली चलती है –इकाई पहले और दहाई बाद में — और उसके बाद क्रम बदलकर वह हो जाता है जो द्रविड़ भाषा में पाया जाता है। इसका अर्थ है, यूरोप की भाषाएं शुद्ध नहीं हैं। उनमें घालमेल हुआ है। आर्य और द्रविड़ दोनों तत्वों का प्रवेश हुआ है। और साथ ही इसका यह अर्थ भी है केवल स्वामी (आर्य) वर्ग की भाषा और संस्कृति का प्रसार यूरोप तक नहीं हुआ था, उसकी सेवा में लगे हुए असुर (अनार्य) – द्रविड़ और मुंडारी बोलने वाले लोगों की भाषा और संस्कृति का समानांतर प्रसार हुआ था। द्रविड़ और चीनी में मिलने वाली समानता का कारण मुंडारी तत्वों का जिन्हें मेलानेशियन या दक्षिणदेशीय कहा जाता है – भारत सहित चीन और जापान तक प्रवेश रहा है।” तो बात अधिक सलीके से, संक्षेप में और बोधगम्य रूप में प्रस्तुत की जा सकती थी।

Post – 2020-08-24

नासमझी के रूप

रामविलास जी को इस बात की शिकायत कि हिंदी के पाठक उन्हें समझते नहीं। शिकायत केवल उन लोगों से नहीं थी जो उनकी निंदा करते हैं, बल्कि उन लोगों से भी जिन्हें उनका प्रशंसक समझा जाता था। अंध-विरोध और अन्ध-प्रशंसा के दो पाटों के बीच पिसता हुआ एक ऐसा लेखक जिसकी हर इबारत सुबोध है, जो अपने विचारों को पारदर्शी और बहुजन ग्राह्य बनाने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहा, हैरान करने वाली बात है, परंतु शिकायत इस हद तक सही थी कि मैं यह दावा कर सकता हूं कि रामविलास जी स्वयं अपने को नहीं समझ पाते थे, उन्हें समुचित प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयत्नशील परिवार जन तो समझ ही नहीं सकते थे। मैं उन लोगों के साथ हूं जो रामविलास जी की आलोचना करना चाहते हैं। यह एक जरूरी काम है। उनके लेखन ने गलतियां इतनी हैं कि जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। मेरी तुलना में बहुत अधिक।

जब मैं ऐसा कहता हूं, तो मेरा तात्पर्य यह नहीं होता कि गलतियां करने वाला व्यक्ति अधिक बड़ा होता है, तात्पर्य केवल यह है जो गलतियां नहीं करता, वह अपने दिमाग से काम नहीं लेता। दूसरों के दिमाग पर भरोसा करके उनको दोहराता रहता है, और जिन को दोहराता है उनको भी समझ नहीं पाता। गलतियों की संख्या इस बात पर निर्भर करती है कि दुनिया की महान विभूतियां वे ही हैं जिन्होंने यथास्थिति के विरुद्ध विद्रोह किया है, नए रास्ते की तलाश करते हुए ठोकरें खाई हैं और बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो उनकी प्रतिज्ञा को गलत सिद्ध करता है। यह आइंस्टाइन ही हो सकते हैं जिनके सापेक्षता के सिद्धांत से क्वांटम सिद्धांत का जन्म हुआ और उसे ही वह समझ नहीं सके। यह तुलसीदास हो सकते हैं, जो कहें, सियाराम मय सब जग जानी, करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी. और साथ ही विप्रवाद,और जप, माला, छापा तिलक का समर्थन भी करें जिसकी सीमाओं का उल्लेख कबीर उनसे एक पीढ़ी पहले कर गए थे और जिनकी गहरी समझ रखते हुए, तुलसीदास उनके विरोध में ही नहीं अपने आदर्शों के विरोध में भी खड़े थे। उनके साहित्य का एक पाठ ऐसा भी बनता है। परंतु उसी को ध्यान से पढ़ने पर वह अपने मर्यादा पुरुषोत्तम को निषादों के साथ ( आप जानते हैं निषाद क्यों सबसे गर्हित समझे जाते थे? नहीं जानते होंगे। मैं अपने एक अनुभव से इसे समझाना चाहता हूं। गुजरात में द्वारका से लौटते समय हमारी बस मछियारों की एक बस्ती से गुजरी जिसमें सूखने के लिए जगह जगह मछलियाँ लटकाई गई थीं, उससे गुजरते हुए हमें दस पन्दंह मिनट तक साँस लेते हुए घुटन अनुभव हो रही थी, वहाँ से बाहर निकलने के बाद आधे-पौन घंटे तक नथनों से वही बास आती रही। मछियारों को ऐसी कोई समस्या न थी। उनकी समस्या अपने परिवेश से बाहर निकलने पर आरंभ होती होगी।

हम यह याद दिलाना चाहते हैं कि ऐसे निषादराज से गले मिलने वाले, जिन आदिम जनों को शूद्रों से भी हेय, पशुवत समझा जाता था, उन्हें उनके टोटेम का प्रतिरूप बना दिया जाता था, वे शबर जिनमें 19वीं शताब्दी तक भी नरवलि या मरिया प्रथा का चलन था, उनके बीच मैत्री भाव से रहने वाले शबरी का जूठन खाने वाली आत्मीयता के साथ रहने वाले, उनके सहयोग से आडंबरपूर्ण और उच्छृंखल सत्ता को परास्त करने वाले और अपनी खोई वैध सत्ता को हासिल करने वाले राम तुलसी के मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं, झूठी, बाद की गढ़ी हुई, ब्राह्मणवादी अपेक्षाओं के अनुसार, पत्नी को मात्र एक अफवाह की कसौटी पर सही सिद्ध होने के लिए, त्यागने वाले राम नहीं। उनके लिए तुलसी के मानस में जगह नहीं है।

महानता को उसके अंतर्विरोधों के साथ समझना होता है, और तब हम पाते हैं कि पहले जो हमारी अपेक्षाओं के विपरीत लगता था, वह अपनी अंतिम व्याख्या में उसी की पूर्ति करता है। ह्विटमैन वेदान्ती मुहावरों में ‘सांग ऑफ माइसेल्फ में प्रश्न करता है, क्या मैं अपना ही खंडन करता हूँ? और उत्तर देता है, हाँ मैं अपना खंडन करता हूँ, क्योकि मुझमें विपुलता (समग्रता) भरी है।’

तुलसी के सामने दो चुनौतियां थीं। एक मानवतावादी जिसके लिए सियाराम मट सब जग जानी वाले तुलसी सामने आते हैं, वर्जनाओं को तोड़ने वाले और उसके बाद भी नई मर्यादा स्थापित करने वाले राम आते हैं और दूसरी है आपद्धर्म जिसमें कल्याणकारी झूठ सच का पर्याय बन जाता है। जिसमें तुलसी को लगता है उदारता और समावेशिता की जगह जिस हिंदुत्व में है उससे विद्रोह करने वाले ऐसे धर्म संप्रदायों की और बढ़ रहे हैं जिसका अगला पड़ाव इस्लाम होता है जिसमे इंसानियत के लिए जगह नहीं केवल मुसलमानों के लिए जगह है। विचारों के स्तर पर जनता को कायल नहीं बनाया जा सकता इसलिए इस्लाम की तरह ही विश्वास को अपना हथियार बनाते हुए तुलसी उन मूल्यों की रक्षा करते हैं जिनके लुप्त हो जाने के बाद मानव समाज समाज रह जाता है मानव नहीं रह जाता। मैं नहीं जानता कि मैं तुलसी को सही समझ रहा हूं या नहीं परंतु उन्हें समझने की यह एक दृष्टि हो सकती है, इसकी और ध्यान नहीं दिया गया।

बंगालियों में मछली खाने की बहुत आदत है। वे मछली खाते हैं, मछली का कांटा नहीं। और उनकी सबसे प्रिय मछली हिलसा है जिससे अधिक कांटे किसी दूसरी मछली नहीं होते। अंतर्विरोध का सामना होने की दशा में हमें जो ग्राह्य है उस पर ध्यान देना चाहिए, त्याज्य के प्रति उदासीन रहना चाहिए।।

मैंने तुलसी के उदाहरण से जो कुछ कहना चाहा उसका एक कारण यह भी है कि तुलसी एक समय में सभी मार्क्सवादियों के प्रिय कवि थे, बाद में त्याग दिए गए, उनकी जगह कबीर को दे दी गई, परंतु इसके बाद भी रामविलास शर्मा के आदर्श कवि तुलसी ही रहे, कबीर पर वह लगभग चुप रहे। उनको समझने के लिए उनके इस अंतर्विरोध को समझना होगा और यह समझना होगा कि उनका यह दृष्टिकोण प्रगतिवादी है, या प्रतिक्रियावादी । इस पर अलग से विचार करना जरूरी है।

कुछ लोग रामविलास जी के पीछे इसलिए हाथ धो कर पड़ जाते हैं कि उनका उनसे विचारधारात्मक विरोध है। उन्हें रामविलास जी मार्क्सवादी तेवर रखने के बावजूद प्रतिक्रियावादी दिखाई देते हैं। उनकी चिंता को हंसकर नहीं उड़ाया जा सकता। बहस इस बात पर अवश्य हो सकती है कि वे स्वयं अपने अनजाने ही उससे भी अधिक प्रतिक्रियावादी, मानव द्रोही और कट्टर विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं या नहीं और कट्टरता को बढ़ावा दे रहे हैं या नहीं। रामविलास जी के लेखन और कर्म का परिणाम उनके आंदोलन और कर्म के परिणाम की तुलना में अधिक प्रगतिवादी है या प्रगति विरोधी।

यह तो नासमझी का एक रूप हुआ। दूसरा रूप वह है कि मैं, जिसने उनके समर्थन में कई बार लिखा भी है, उनके लिखे को समझ नहीं पाता। इसकी चर्चा आगे।

Post – 2020-08-24

नासमझी के रूप

रामविलास जी को इस बात की शिकायत कि हिंदी के पाठक उन्हें समझते नहीं। शिकायत केवल उन लोगों से नहीं थी जो उनकी निंदा करते हैं, बल्कि उन लोगों से भी जिन्हें उनका प्रशंसक समझा जाता था। अंध-विरोध और अन्ध-प्रशंसा के दो पाटों के बीच पिसता हुआ एक ऐसा लेखक जिसकी हर इबारत सुबोध है, जो अपने विचारों को पारदर्शी और बहुजन ग्राह्य बनाने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहा, हैरान करने वाली बात है, परंतु शिकायत इस हद तक सही थी कि मैं यह दावा कर सकता हूं कि रामविलास जी स्वयं अपने को नहीं समझ पाते थे, उन्हें समुचित प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयत्नशील परिवार जन तो समझ ही नहीं सकते थे। मैं उन लोगों के साथ हूं जो रामविलास जी की आलोचना करना चाहते हैं। यह एक जरूरी काम है। उनके लेखन ने गलतियां इतनी हैं कि जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। मेरी तुलना में बहुत अधिक।

जब मैं ऐसा कहता हूं, तो मेरा तात्पर्य यह नहीं होता कि गलतियां करने वाला व्यक्ति अधिक बड़ा होता है, तात्पर्य केवल यह है जो गलतियां नहीं करता, वह अपने दिमाग से काम नहीं लेता। दूसरों के दिमाग पर भरोसा करके उनको दोहराता रहता है, और जिन को दोहराता है उनको भी समझ नहीं पाता। गलतियों की संख्या इस बात पर निर्भर करती है कि दुनिया की महान विभूतियां वे ही हैं जिन्होंने यथास्थिति के विरुद्ध विद्रोह किया है, नए रास्ते की तलाश करते हुए ठोकरें खाई हैं और बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो उनकी प्रतिज्ञा को गलत सिद्ध करता है। यह आइंस्टाइन ही हो सकते हैं जिनके सापेक्षता के सिद्धांत से क्वांटम सिद्धांत का जन्म हुआ और उसे ही वह समझ नहीं सके। यह तुलसीदास हो सकते हैं, जो कहें, सियाराम मय सब जग जानी, करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी. और साथ ही विप्रवाद,और जप, माला, छापा तिलक का समर्थन भी करें जिसकी सीमाओं का उल्लेख कबीर उनसे एक पीढ़ी पहले कर गए थे और जिनकी गहरी समझ रखते हुए, तुलसीदास उनके विरोध में ही नहीं अपने आदर्शों के विरोध में भी खड़े थे। उनके साहित्य का एक पाठ ऐसा भी बनता है। परंतु उसी को ध्यान से पढ़ने पर वह अपने मर्यादा पुरुषोत्तम को निषादों के साथ ( आप जानते हैं निषाद क्यों सबसे गर्हित समझे जाते थे? नहीं जानते होंगे। मैं अपने एक अनुभव से इसे समझाना चाहता हूं। गुजरात में द्वारका से लौटते समय हमारी बस मछियारों की एक बस्ती से गुजरी जिसमें सूखने के लिए जगह जगह मछलियाँ लटकाई गई थीं, उससे गुजरते हुए हमें दस पन्दंह मिनट तक साँस लेते हुए घुटन अनुभव हो रही थी, वहाँ से बाहर निकलने के बाद आधे-पौन घंटे तक नथनों से वही बास आती रही। मछियारों को ऐसी कोई समस्या न थी। उनकी समस्या अपने परिवेश से बाहर निकलने पर आरंभ होती होगी।

हम यह याद दिलाना चाहते हैं कि ऐसे निषादराज से गले मिलने वाले, जिन आदिम जनों को शूद्रों से भी हेय, पशुवत समझा जाता था, उन्हें उनके टोटेम का प्रतिरूप बना दिया जाता था, वे शबर जिनमें 19वीं शताब्दी तक भी नरवलि या मरिया प्रथा का चलन था, उनके बीच मैत्री भाव से रहने वाले शबरी का जूठन खाने वाली आत्मीयता के साथ रहने वाले, उनके सहयोग से आडंबरपूर्ण और उच्छृंखल सत्ता को परास्त करने वाले और अपनी खोई वैध सत्ता को हासिल करने वाले राम तुलसी के मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं, झूठी, बाद की गढ़ी हुई, ब्राह्मणवादी अपेक्षाओं के अनुसार, पत्नी को मात्र एक अफवाह की कसौटी पर सही सिद्ध होने के लिए, त्यागने वाले राम नहीं। उनके लिए तुलसी के मानस में जगह नहीं है।

महानता को उसके अंतर्विरोधों के साथ समझना होता है, और तब हम पाते हैं कि पहले जो हमारी अपेक्षाओं के विपरीत लगता था, वह अपनी अंतिम व्याख्या में उसी की पूर्ति करता है। ह्विटमैन वेदान्ती मुहावरों में ‘सांग ऑफ माइसेल्फ में प्रश्न करता है, क्या मैं अपना ही खंडन करता हूँ? और उत्तर देता है, हाँ मैं अपना खंडन करता हूँ, क्योकि मुझमें विपुलता (समग्रता) भरी है।’

तुलसी के सामने दो चुनौतियां थीं। एक मानवतावादी जिसके लिए सियाराम मट सब जग जानी वाले तुलसी सामने आते हैं, वर्जनाओं को तोड़ने वाले और उसके बाद भी नई मर्यादा स्थापित करने वाले राम आते हैं और दूसरी है आपद्धर्म जिसमें कल्याणकारी झूठ सच का पर्याय बन जाता है। जिसमें तुलसी को लगता है उदारता और समावेशिता की जगह जिस हिंदुत्व में है उससे विद्रोह करने वाले ऐसे धर्म संप्रदायों की और बढ़ रहे हैं जिसका अगला पड़ाव इस्लाम होता है जिसमे इंसानियत के लिए जगह नहीं केवल मुसलमानों के लिए जगह है। विचारों के स्तर पर जनता को कायल नहीं बनाया जा सकता इसलिए इस्लाम की तरह ही विश्वास को अपना हथियार बनाते हुए तुलसी उन मूल्यों की रक्षा करते हैं जिनके लुप्त हो जाने के बाद मानव समाज समाज रह जाता है मानव नहीं रह जाता। मैं नहीं जानता कि मैं तुलसी को सही समझ रहा हूं या नहीं परंतु उन्हें समझने की यह एक दृष्टि हो सकती है, इसकी और ध्यान नहीं दिया गया।

बंगालियों में मछली खाने की बहुत आदत है। वे मछली खाते हैं, मछली का कांटा नहीं। और उनकी सबसे प्रिय मछली हिलसा है जिससे अधिक कांटे किसी दूसरी मछली नहीं होते। अंतर्विरोध का सामना होने की दशा में हमें जो ग्राह्य है उस पर ध्यान देना चाहिए, त्याज्य के प्रति उदासीन रहना चाहिए।।

मैंने तुलसी के उदाहरण से जो कुछ कहना चाहा उसका एक कारण यह भी है कि तुलसी एक समय में सभी मार्क्सवादियों के प्रिय कवि थे, बाद में त्याग दिए गए, उनकी जगह कबीर को दे दी गई, परंतु इसके बाद भी रामविलास शर्मा के आदर्श कवि तुलसी ही रहे, कबीर पर वह लगभग चुप रहे। उनको समझने के लिए उनके इस अंतर्विरोध को समझना होगा और यह समझना होगा कि उनका यह दृष्टिकोण प्रगतिवादी है, या प्रतिक्रियावादी । इस पर अलग से विचार करना जरूरी है।

कुछ लोग रामविलास जी के पीछे इसलिए हाथ धो कर पड़ जाते हैं कि उनका उनसे विचारधारात्मक विरोध है। उन्हें रामविलास जी मार्क्सवादी तेवर रखने के बावजूद प्रतिक्रियावादी दिखाई देते हैं। उनकी चिंता को हंसकर नहीं उड़ाया जा सकता। बहस इस बात पर अवश्य हो सकती है कि वे स्वयं अपने अनजाने ही उससे भी अधिक प्रतिक्रियावादी, मानव द्रोही और कट्टर विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं या नहीं और कट्टरता को बढ़ावा दे रहे हैं या नहीं। रामविलास जी के लेखन और कर्म का परिणाम उनके आंदोलन और कर्म के परिणाम की तुलना में अधिक प्रगतिवादी है या प्रगति विरोधी।

यह तो नासमझी का एक रूप हुआ। दूसरा रूप वह है कि मैं, जिसने उनके समर्थन में कई बार लिखा भी है, उनके लिखे को समझ नहीं पाता। इसकी चर्चा आगे।

Post – 2020-08-24

नासमझी के रूप

रामविलास जी को इस बात की शिकायत कि हिंदी के पाठक उन्हें समझते नहीं। शिकायत केवल उन लोगों से नहीं थी जो उनकी निंदा करते हैं, बल्कि उन लोगों से भी जिन्हें उनका प्रशंसक समझा जाता था। अंध-विरोध और अन्ध-प्रशंसा के दो पाटों के बीच पिसता हुआ एक ऐसा लेखक जिसकी हर इबारत सुबोध है, जो अपने विचारों को पारदर्शी और बहुजन ग्राह्य बनाने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहा, हैरान करने वाली बात है, परंतु शिकायत इस हद तक सही थी कि मैं यह दावा कर सकता हूं कि रामविलास जी स्वयं अपने को नहीं समझ पाते थे, उन्हें समुचित प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयत्नशील परिवार जन तो समझ ही नहीं सकते थे। मैं उन लोगों के साथ हूं जो रामविलास जी की आलोचना करना चाहते हैं। यह एक जरूरी काम है। उनके लेखन ने गलतियां इतनी हैं कि जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। मेरी तुलना में बहुत अधिक।

जब मैं ऐसा कहता हूं, तो मेरा तात्पर्य यह नहीं होता कि गलतियां करने वाला व्यक्ति अधिक बड़ा होता है, तात्पर्य केवल यह है जो गलतियां नहीं करता, वह अपने दिमाग से काम नहीं लेता। दूसरों के दिमाग पर भरोसा करके उनको दोहराता रहता है, और जिन को दोहराता है उनको भी समझ नहीं पाता। गलतियों की संख्या इस बात पर निर्भर करती है कि दुनिया की महान विभूतियां वे ही हैं जिन्होंने यथास्थिति के विरुद्ध विद्रोह किया है, नए रास्ते की तलाश करते हुए ठोकरें खाई हैं और बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो उनकी प्रतिज्ञा को गलत सिद्ध करता है। यह आइंस्टाइन ही हो सकते हैं जिनके सापेक्षता के सिद्धांत से क्वांटम सिद्धांत का जन्म हुआ और उसे ही वह समझ नहीं सके। यह तुलसीदास हो सकते हैं, जो कहें, सियाराम मय सब जग जानी, करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी. और साथ ही विप्रवाद,और जप, माला, छापा तिलक का समर्थन भी करें जिसकी सीमाओं का उल्लेख कबीर उनसे एक पीढ़ी पहले कर गए थे और जिनकी गहरी समझ रखते हुए, तुलसीदास उनके विरोध में ही नहीं अपने आदर्शों के विरोध में भी खड़े थे। उनके साहित्य का एक पाठ ऐसा भी बनता है। परंतु उसी को ध्यान से पढ़ने पर वह अपने मर्यादा पुरुषोत्तम को निषादों के साथ ( आप जानते हैं निषाद क्यों सबसे गर्हित समझे जाते थे? नहीं जानते होंगे। मैं अपने एक अनुभव से इसे समझाना चाहता हूं। गुजरात में द्वारका से लौटते समय हमारी बस मछियारों की एक बस्ती से गुजरी जिसमें सूखने के लिए जगह जगह मछलियाँ लटकाई गई थीं, उससे गुजरते हुए हमें दस पन्दंह मिनट तक साँस लेते हुए घुटन अनुभव हो रही थी, वहाँ से बाहर निकलने के बाद आधे-पौन घंटे तक नथनों से वही बास आती रही। मछियारों को ऐसी कोई समस्या न थी। उनकी समस्या अपने परिवेश से बाहर निकलने पर आरंभ होती होगी।

हम यह याद दिलाना चाहते हैं कि ऐसे निषादराज से गले मिलने वाले, जिन आदिम जनों को शूद्रों से भी हेय, पशुवत समझा जाता था, उन्हें उनके टोटेम का प्रतिरूप बना दिया जाता था, वे शबर जिनमें 19वीं शताब्दी तक भी नरवलि या मरिया प्रथा का चलन था, उनके बीच मैत्री भाव से रहने वाले शबरी का जूठन खाने वाली आत्मीयता के साथ रहने वाले, उनके सहयोग से आडंबरपूर्ण और उच्छृंखल सत्ता को परास्त करने वाले और अपनी खोई वैध सत्ता को हासिल करने वाले राम तुलसी के मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं, झूठी, बाद की गढ़ी हुई, ब्राह्मणवादी अपेक्षाओं के अनुसार, पत्नी को मात्र एक अफवाह की कसौटी पर सही सिद्ध होने के लिए, त्यागने वाले राम नहीं। उनके लिए तुलसी के मानस में जगह नहीं है।

महानता को उसके अंतर्विरोधों के साथ समझना होता है, और तब हम पाते हैं कि पहले जो हमारी अपेक्षाओं के विपरीत लगता था, वह अपनी अंतिम व्याख्या में उसी की पूर्ति करता है। ह्विटमैन वेदान्ती मुहावरों में ‘सांग ऑफ माइसेल्फ में प्रश्न करता है, क्या मैं अपना ही खंडन करता हूँ? और उत्तर देता है, हाँ मैं अपना खंडन करता हूँ, क्योकि मुझमें विपुलता (समग्रता) भरी है।’

तुलसी के सामने दो चुनौतियां थीं। एक मानवतावादी जिसके लिए सियाराम मट सब जग जानी वाले तुलसी सामने आते हैं, वर्जनाओं को तोड़ने वाले और उसके बाद भी नई मर्यादा स्थापित करने वाले राम आते हैं और दूसरी है आपद्धर्म जिसमें कल्याणकारी झूठ सच का पर्याय बन जाता है। जिसमें तुलसी को लगता है उदारता और समावेशिता की जगह जिस हिंदुत्व में है उससे विद्रोह करने वाले ऐसे धर्म संप्रदायों की और बढ़ रहे हैं जिसका अगला पड़ाव इस्लाम होता है जिसमे इंसानियत के लिए जगह नहीं केवल मुसलमानों के लिए जगह है। विचारों के स्तर पर जनता को कायल नहीं बनाया जा सकता इसलिए इस्लाम की तरह ही विश्वास को अपना हथियार बनाते हुए तुलसी उन मूल्यों की रक्षा करते हैं जिनके लुप्त हो जाने के बाद मानव समाज समाज रह जाता है मानव नहीं रह जाता। मैं नहीं जानता कि मैं तुलसी को सही समझ रहा हूं या नहीं परंतु उन्हें समझने की यह एक दृष्टि हो सकती है, इसकी और ध्यान नहीं दिया गया।

बंगालियों में मछली खाने की बहुत आदत है। वे मछली खाते हैं, मछली का कांटा नहीं। और उनकी सबसे प्रिय मछली हिलसा है जिससे अधिक कांटे किसी दूसरी मछली नहीं होते। अंतर्विरोध का सामना होने की दशा में हमें जो ग्राह्य है उस पर ध्यान देना चाहिए, त्याज्य के प्रति उदासीन रहना चाहिए।।

मैंने तुलसी के उदाहरण से जो कुछ कहना चाहा उसका एक कारण यह भी है कि तुलसी एक समय में सभी मार्क्सवादियों के प्रिय कवि थे, बाद में त्याग दिए गए, उनकी जगह कबीर को दे दी गई, परंतु इसके बाद भी रामविलास शर्मा के आदर्श कवि तुलसी ही रहे, कबीर पर वह लगभग चुप रहे। उनको समझने के लिए उनके इस अंतर्विरोध को समझना होगा और यह समझना होगा कि उनका यह दृष्टिकोण प्रगतिवादी है, या प्रतिक्रियावादी । इस पर अलग से विचार करना जरूरी है।

कुछ लोग रामविलास जी के पीछे इसलिए हाथ धो कर पड़ जाते हैं कि उनका उनसे विचारधारात्मक विरोध है। उन्हें रामविलास जी मार्क्सवादी तेवर रखने के बावजूद प्रतिक्रियावादी दिखाई देते हैं। उनकी चिंता को हंसकर नहीं उड़ाया जा सकता। बहस इस बात पर अवश्य हो सकती है कि वे स्वयं अपने अनजाने ही उससे भी अधिक प्रतिक्रियावादी, मानव द्रोही और कट्टर विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं या नहीं और कट्टरता को बढ़ावा दे रहे हैं या नहीं। रामविलास जी के लेखन और कर्म का परिणाम उनके आंदोलन और कर्म के परिणाम की तुलना में अधिक प्रगतिवादी है या प्रगति विरोधी।

यह तो नासमझी का एक रूप हुआ। दूसरा रूप वह है कि मैं, जिसने उनके समर्थन में कई बार लिखा भी है, उनके लिखे को समझ नहीं पाता। इसकी चर्चा आगे।

Post – 2020-08-24

नासमझी के रूप

रामविलास जी को इस बात की शिकायत कि हिंदी के पाठक उन्हें समझते नहीं। शिकायत केवल उन लोगों से नहीं थी जो उनकी निंदा करते हैं, बल्कि उन लोगों से भी जिन्हें उनका प्रशंसक समझा जाता था। अंध-विरोध और अन्ध-प्रशंसा के दो पाटों के बीच पिसता हुआ एक ऐसा लेखक जिसकी हर इबारत सुबोध है, जो अपने विचारों को पारदर्शी और बहुजन ग्राह्य बनाने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहा, हैरान करने वाली बात है, परंतु शिकायत इस हद तक सही थी कि मैं यह दावा कर सकता हूं कि रामविलास जी स्वयं अपने को नहीं समझ पाते थे, उन्हें समुचित प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयत्नशील परिवार जन तो समझ ही नहीं सकते थे। मैं उन लोगों के साथ हूं जो रामविलास जी की आलोचना करना चाहते हैं। यह एक जरूरी काम है। उनके लेखन ने गलतियां इतनी हैं कि जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। मेरी तुलना में बहुत अधिक।

जब मैं ऐसा कहता हूं, तो मेरा तात्पर्य यह नहीं होता कि गलतियां करने वाला व्यक्ति अधिक बड़ा होता है, तात्पर्य केवल यह है जो गलतियां नहीं करता, वह अपने दिमाग से काम नहीं लेता। दूसरों के दिमाग पर भरोसा करके उनको दोहराता रहता है, और जिन को दोहराता है उनको भी समझ नहीं पाता। गलतियों की संख्या इस बात पर निर्भर करती है कि दुनिया की महान विभूतियां वे ही हैं जिन्होंने यथास्थिति के विरुद्ध विद्रोह किया है, नए रास्ते की तलाश करते हुए ठोकरें खाई हैं और बहुत कुछ ऐसा लिखा है जो उनकी प्रतिज्ञा को गलत सिद्ध करता है। यह आइंस्टाइन ही हो सकते हैं जिनके सापेक्षता के सिद्धांत से क्वांटम सिद्धांत का जन्म हुआ और उसे ही वह समझ नहीं सके। यह तुलसीदास हो सकते हैं, जो कहें, सियाराम मय सब जग जानी, करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी. और साथ ही विप्रवाद,और जप, माला, छापा तिलक का समर्थन भी करें जिसकी सीमाओं का उल्लेख कबीर उनसे एक पीढ़ी पहले कर गए थे और जिनकी गहरी समझ रखते हुए, तुलसीदास उनके विरोध में ही नहीं अपने आदर्शों के विरोध में भी खड़े थे। उनके साहित्य का एक पाठ ऐसा भी बनता है। परंतु उसी को ध्यान से पढ़ने पर वह अपने मर्यादा पुरुषोत्तम को निषादों के साथ ( आप जानते हैं निषाद क्यों सबसे गर्हित समझे जाते थे? नहीं जानते होंगे। मैं अपने एक अनुभव से इसे समझाना चाहता हूं। गुजरात में द्वारका से लौटते समय हमारी बस मछियारों की एक बस्ती से गुजरी जिसमें सूखने के लिए जगह जगह मछलियाँ लटकाई गई थीं, उससे गुजरते हुए हमें दस पन्दंह मिनट तक साँस लेते हुए घुटन अनुभव हो रही थी, वहाँ से बाहर निकलने के बाद आधे-पौन घंटे तक नथनों से वही बास आती रही। मछियारों को ऐसी कोई समस्या न थी। उनकी समस्या अपने परिवेश से बाहर निकलने पर आरंभ होती होगी।

हम यह याद दिलाना चाहते हैं कि ऐसे निषादराज से गले मिलने वाले, जिन आदिम जनों को शूद्रों से भी हेय, पशुवत समझा जाता था, उन्हें उनके टोटेम का प्रतिरूप बना दिया जाता था, वे शबर जिनमें 19वीं शताब्दी तक भी नरवलि या मरिया प्रथा का चलन था, उनके बीच मैत्री भाव से रहने वाले शबरी का जूठन खाने वाली आत्मीयता के साथ रहने वाले, उनके सहयोग से आडंबरपूर्ण और उच्छृंखल सत्ता को परास्त करने वाले और अपनी खोई वैध सत्ता को हासिल करने वाले राम तुलसी के मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं, झूठी, बाद की गढ़ी हुई, ब्राह्मणवादी अपेक्षाओं के अनुसार, पत्नी को मात्र एक अफवाह की कसौटी पर सही सिद्ध होने के लिए, त्यागने वाले राम नहीं। उनके लिए तुलसी के मानस में जगह नहीं है।

महानता को उसके अंतर्विरोधों के साथ समझना होता है, और तब हम पाते हैं कि पहले जो हमारी अपेक्षाओं के विपरीत लगता था, वह अपनी अंतिम व्याख्या में उसी की पूर्ति करता है। ह्विटमैन वेदान्ती मुहावरों में ‘सांग ऑफ माइसेल्फ में प्रश्न करता है, क्या मैं अपना ही खंडन करता हूँ? और उत्तर देता है, हाँ मैं अपना खंडन करता हूँ, क्योकि मुझमें विपुलता (समग्रता) भरी है।’

तुलसी के सामने दो चुनौतियां थीं। एक मानवतावादी जिसके लिए सियाराम मट सब जग जानी वाले तुलसी सामने आते हैं, वर्जनाओं को तोड़ने वाले और उसके बाद भी नई मर्यादा स्थापित करने वाले राम आते हैं और दूसरी है आपद्धर्म जिसमें कल्याणकारी झूठ सच का पर्याय बन जाता है। जिसमें तुलसी को लगता है उदारता और समावेशिता की जगह जिस हिंदुत्व में है उससे विद्रोह करने वाले ऐसे धर्म संप्रदायों की और बढ़ रहे हैं जिसका अगला पड़ाव इस्लाम होता है जिसमे इंसानियत के लिए जगह नहीं केवल मुसलमानों के लिए जगह है। विचारों के स्तर पर जनता को कायल नहीं बनाया जा सकता इसलिए इस्लाम की तरह ही विश्वास को अपना हथियार बनाते हुए तुलसी उन मूल्यों की रक्षा करते हैं जिनके लुप्त हो जाने के बाद मानव समाज समाज रह जाता है मानव नहीं रह जाता। मैं नहीं जानता कि मैं तुलसी को सही समझ रहा हूं या नहीं परंतु उन्हें समझने की यह एक दृष्टि हो सकती है, इसकी और ध्यान नहीं दिया गया।

बंगालियों में मछली खाने की बहुत आदत है। वे मछली खाते हैं, मछली का कांटा नहीं। और उनकी सबसे प्रिय मछली हिलसा है जिससे अधिक कांटे किसी दूसरी मछली नहीं होते। अंतर्विरोध का सामना होने की दशा में हमें जो ग्राह्य है उस पर ध्यान देना चाहिए, त्याज्य के प्रति उदासीन रहना चाहिए।।

मैंने तुलसी के उदाहरण से जो कुछ कहना चाहा उसका एक कारण यह भी है कि तुलसी एक समय में सभी मार्क्सवादियों के प्रिय कवि थे, बाद में त्याग दिए गए, उनकी जगह कबीर को दे दी गई, परंतु इसके बाद भी रामविलास शर्मा के आदर्श कवि तुलसी ही रहे, कबीर पर वह लगभग चुप रहे। उनको समझने के लिए उनके इस अंतर्विरोध को समझना होगा और यह समझना होगा कि उनका यह दृष्टिकोण प्रगतिवादी है, या प्रतिक्रियावादी । इस पर अलग से विचार करना जरूरी है।

कुछ लोग रामविलास जी के पीछे इसलिए हाथ धो कर पड़ जाते हैं कि उनका उनसे विचारधारात्मक विरोध है। उन्हें रामविलास जी मार्क्सवादी तेवर रखने के बावजूद प्रतिक्रियावादी दिखाई देते हैं। उनकी चिंता को हंसकर नहीं उड़ाया जा सकता। बहस इस बात पर अवश्य हो सकती है कि वे स्वयं अपने अनजाने ही उससे भी अधिक प्रतिक्रियावादी, मानव द्रोही और कट्टर विचारधारा का समर्थन कर रहे हैं या नहीं और कट्टरता को बढ़ावा दे रहे हैं या नहीं। रामविलास जी के लेखन और कर्म का परिणाम उनके आंदोलन और कर्म के परिणाम की तुलना में अधिक प्रगतिवादी है या प्रगति विरोधी।

यह तो नासमझी का एक रूप हुआ। दूसरा रूप वह है कि मैं, जिसने उनके समर्थन में कई बार लिखा भी है, उनके लिखे को समझ नहीं पाता। इसकी चर्चा आगे।

Post – 2020-08-23

कुछ तो जुंबिश हुई
कहीं तो हुई
कुछ तो बदला
कहीं तो बदला है।
मैंने जो कुछ किया
कहा जो कुछ
उससे सारा जहान
बदला है।
मैं भी बदला हूँ
तुम भी बदले हो
पहले जैसा तो
कुछ रहा ही नहीं।
फिर भी क्यों
यह गुमान होता है
कुछ न बदलेगा
कुछ न बदला है।।

Post – 2020-08-23

कुछ तो जुंबिश हुई
कहीं तो हुई
कुछ तो बदला
कहीं तो बदला है।
मैंने जो कुछ किया
कहा जो कुछ
उससे सारा जहान
बदला है।
मैं भी बदला हूँ
तुम भी बदले हो
पहले जैसा तो
कुछ रहा ही नहीं।
फिर भी क्यों
यह गुमान होता है
कुछ न बदलेगा
कुछ न बदला है।।