विचार की सामाजिकता
शीर्षक गलत हो गया। त्रिलोचन जी की एक पंक्ति है, सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ भाषा, उसी सॉनेट में वह भाषाओं के अगम समुद्रों का अवगााहन करने का दावा भी करते हैं। कुछ दूर तक उनका दावा सही भी है।
रामविलास जी ने कहीं यह दावा नहीं किया परंतु उनके लेखन से यह ध्वनित होता है सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ समाज, और यह दावा पूरी तरह ठीक है। भाषा पर उनकी पहली पुस्तक का नाम है भाषा और समाज। केवल भाषा की ही नहीं, शिक्षा, राजनीति, अर्थनीति, कला, विज्ञान, दर्शन, सभी की कसौटी समाज। समाजवाद और साम्यवादी दल इसके अपवाद न थे। यदि समाज-हित में बाधक है तो न तो वह समाजवादी हो सकता है न साम्यवादी। यदि इनमें से कोई भी समाज सापेक्ष नहीं है तो नाम से वह जो कुछ है, वह पाखंड है। जो कुछ होने का दावा करता है, वह वस्तुतः है नहीं। अग्नि में ताप नहीं है, तो वह आग नहीं हो सकती, आग की नुमाइश हो सकती है।
एक दूसरी बात जो उनकी चेतना का अभिन्न अंग है, वह है, प्रतिभा नहीं, श्रम से संभव होती हैं, महान उपलब्धियां।
दोनों बातें इतनी सही हैं कि इन पर बहस करना समय की बर्बादी है, और सही होने के बाद भी यह कितनी गलत हो सकती है इसे भी रामविलास जी के लेखन से ही समझा जा सकता है। इसके विस्तार में जाएं तो यह बात समझ में आने की जगह और उलझ जाएगी।
रामविलास जी जब अपनी मृत्यु शैया पर पड़ गए थे तो मैंने एकांत में उन्हें वचन दिया था, मैं आप पर लिखूंगा। मुझे पता था कि वह चाहते थे कि मैं उनके कृतित्व पर लिखूं। इसलिए उनके होठों पर जो चमक आई थी उसे मैं भूल नहीं सकता। अपनी इस प्रतिज्ञा का मैं अकेला गवाह हूँ, कई बार कोशिश करने के बाद भी (आज से पन्द्रह साल पहले ऐसे ही एक अधूरे प्रयास में 150 पन्ने लिख डाले थे) यह काम पूरा न कर पाने की ग्लानि को भी मेरे अतिरिक्त कोई दूसरा न जानता होगा।
डॉ राधा वल्लभ त्रिपाठी ने मध्य भारत साहित्य अकादमी के मुखपत्र के रामविलास शर्मा पर केंद्रित विशेषांक निकालने का निश्चय किया और उसमें मेरे सहयोग की अपेक्षा की तो आमंत्रण को स्वीकार करने में मुझे संकोच नहीं सकता था, सोचा यही अवसर है जो इस लेख के अतिरिक्त रामविलास जी पर विस्तार से लिखने की प्रेरणा दे सकता है। यही वह जरूरी काम था जो रुका पड़ा था जिसे पूरा करने के लिए लेखमाला को स्थगित करना पड़ा। विडंबना कवि पोप वाली – पा पा पिटी टेक. आइ विल नो मोर वर्सेज मेक। लिखना स्थगित भी किया और लिख भी रहा हूँ उसी टाइम लाइन पर।
रामविलास जी की आलोचना नहीं हुई। उनकी निंदा होती रही। उनकी अधिकांश स्थापनाएं ठीक वे ही थीं जो मेरी, इसलिए प्रायः मुझे रामविलास जी के समर्थन में खड़ा होना पड़ा, जो सच होते हुए भी झूठ है। मैं उनके बचाव में नहीं अपने बचाव में खड़ा होता था। रामविलास जी मेरे कवच थे, उनके ऊपर किए जाने वाले प्रहारों के कारण मैं पूरी तरह सुरक्षित था, उपेक्षित फिर भी नहीं था, इसलिए कोई असंतोष नहीं था। परंतु यदि मैं सोचता कि लिखते समय उन्हीं पढ़ी हुई चीजों का अर्थ बदल जाएगा तो लेख लिखने के लिए भी तैयार न होता।
हम पिछली पोस्ट में नासमझी के एक दूसरे रूप पर बात करना चाहते थे। उसे आगे बढ़ाया तो उसके परिणाम से चौंक गया। संभव है आप भी चौंक उठें।
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यथार्थ का कोई भी रूप इतना जटिल होता है कि परिणाम के बाद ही पता चलता है कि हमने जो उसको जिस रूप में समझा थाया था वह सही था या नहीं। प्रायः हम जिसे समाधान समझते हैं वह समस्या को सुलझाने की जगह नई समस्याएँ खड़ी कर देता है या पुरानी को और उलझा देता है । इसलिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी मेंं हम आगे बढ़ते हैं और मानविकी में घूम-घुमेला ही जारी नहीे रहता, कई बार चक्कर खाते हुए पीछे भी चले जाते है।
मैंने पिछली पोस्ट में एक उलटबांसी जैसी बात कही थी कि रामविलास जी की बहुत सुलझा कर रखी गई सही बातों को भी समझने में कठिनाई होती है और इस कमी को रामविलास जी भी नहीं समझ पाते। कारण, हम जिन बातों को जानते हैं उनको नए सिरे से कोई समझाने चले तो उससे ज्ञान नहीं बढ़ता, थकान पैदा होती है। जिन्हें हम पारिभाषिक शब्द कहते हैं, वे विस्तृत व्याख्याओं के सार रूप होते हैं। यदि हम यह सोच कर कि सामान्यतः लोगों को तकनीकी शब्दों का आशय पता नहीं होता, उनसे बचना चाहें तो उनकी व्याख्याओं का दायरा इतना फैल जाएगा कि शब्द समझ में आएंगे, इबारतों के साथ कोई समस्या न होगी, परंतु कहा क्या गया है, यह समझ में नहीं आएगा। जब कोई व्यक्ति अधिक विस्तार में जाकर किसी बात को समझाना चाहता है तो हम अक्सर उससे कहते हैं कि आप कहना क्या चाहते हैं। अर्थात आपके विस्तार से बात समझ नहीं आ रही है, संक्षेप में कहे तो समझ में आ जाएगी। रामविलास जी मानते हैं दुर्बोधता की समस्या पारिभाषिक शब्दों से पैदा होती है, यदि सरल शब्दों में कठिन विचारों को रखा जाए तो साधारण लोगों को भी किसी भी विषय का ज्ञान हो सकता। भाषा विज्ञान जैसे विषय को भी सभी के लिए रुचिकर बनाया जा सकता है। समझाने के प्रयत्न में जिस बात को वह दो पन्नों में कहते हैं और फिर भी समझ में नहीं आती उसे यदि 2-4 वाक्यों में कहा जाए तो वह बात अधिक आसानी से समझ में भी आ जाएगी और लंबे समय तक हमारी याददाश्त में भी बनी रहेगी। इस बात को रामविलास जी आजीवन नहीं समझ पाए और प्रस्तुति के इस दोष के कारण उनके विचारों को समझने में उनके प्रशंसकों को भी कठिनाई होती रही।
इसे एक उदाहरण से स्पष्ट करना ठीक रहेगा। यूरोप की भाषाओं में संख्या मानों की प्रस्तुति के विषय में वह लिखते हैं:
“दस के बाद हम गिनते हैं ग्यारह, बारह ….संख्यावाचक शब्दों की विशेषता यह है कि दहाई का अंक बाद आता है और उसमें जितनी वृद्धि होती है, अंक पहले रहता है। यही पद्धति संस्कृत में है। एकादश, द्वादश,…। ग्रीक में ग्यारह-बारह के लिए हेन्देका, दोदेका शब्द हैं। … पचीस के लिए एइकोसी पेंते (बीस पाँच) , छब्बीस के लिए एइकोसी हेक्स। —”
फिर वह अंग्रेजी के उदाहरण इसी विस्तार से प्रस्तुत करते हैं:
“अंग्रेजी में दस के बाद –…..
यही बात वह लातिन के प्रयोगों से निरूपित करते हैं:
“लैटिन में … ग्यारह, बारह, तेरह के लिए ऊनदेकिम, दुओदेकिन, त्रेदेकिम शब्द हैं, किन्तु बीस के बाद बीगीन्ती ऊनुस, बीगिन्ती दुओ आदि रूप आरंभ होते हैं। 98
रूसी में उन्नीस तक संस्कृत का सा क्रम चलता है, लेकिन इक्कीस के लिए द्वाद्सत-अदीन – यूरोप अन्य भाषाओं वाला क्रम चलने लगता है।97
इसे ही रूसी के विषय में उदाहृत करते हैं: “रूसी में उन्नीस तक संसकृत का क्रम चलता है,….” फिर जर्मन डेनिश फ्रांसीसी, पुर्तगाली, के उदाहरण आते हैं। वह
आगे बताते हैं, “ चीनी पद्धति यूरोपीय पद्धति से मिलती जुलती है और अधिक सुसंगत नहीं है उसमें ग्यारह बारह के लिए भी शिह(दस) में ई (एक), एर(दो) जोड़े जाते हैं। चीनी जैसा ही नियम राहुल द्रविड़ भाषाओं में है, यथा तमिल में पत्तु – दस, पदिनोण्णु –ग्यारह।….
और इसके बाद लिखते हैं, “साधारणतः यूरोप की भाषाओं में दहाई की संख्या को पहले और जोड़ी जाने वाली संख्या को बाद में रखने की प्रवृत्ति है। कुछ में ग्यारह, बारह; कुछ में पन्द्रह, कुछ में उन्नीस तक संस्कृत का क्रम चलता है। बाद में उनकी मूल प्रवृत्ति प्रकट हो जाती है जो दहाई को पहले रखती है। कुछ भाषाएं ‘और’ से काम लेकर दहाई को बाद में रखती हैं यह सामान्य नियम केवल संस्कृत और उससे संबंधित भारतीय भाषाओं में देखा जाता है।…. स्पष्ट है कि ग्रीक-लैटिन फ्रांसीसी-अंग्रेजी आदि भाषाओं में दो तरह की भाव प्रकृति से संख्यावाचक शब्द रूपों का गठन हुआ है” (भाषा और समाज, 1989, पृ. 96- 97)।
हमें शिकायत इस बात की है इतने विस्तार में जाने के बाद भी वह जो कहना था उसे नहीं कह पाए, और जिस निष्कर्ष पर पहुंचे वह सही नहीं है। यदि कहते , “संख्या मान की दो प्रणालियां हैं। एक में दहाई पहले आती है और इकाई बाद में। यह प्रणाली द्रविड़ भाषाओं में और चीनी में देखने में आती है। दूसरी प्रणाली में, इकाई पहले आती है और दहाई बाद में। यह संस्कृत और हिंदी सहित दूसरी उत्तर भारतीय भाषाओं में पाई जाती है। यूरोपीय भाषाओं में दोनों का घालमेल देखने में आता है। उन्नीस तक संस्कृत प्रणाली चलती है –इकाई पहले और दहाई बाद में — और उसके बाद क्रम बदलकर वह हो जाता है जो द्रविड़ भाषा में पाया जाता है। इसका अर्थ है, यूरोप की भाषाएं शुद्ध नहीं हैं। उनमें घालमेल हुआ है। आर्य और द्रविड़ दोनों तत्वों का प्रवेश हुआ है। और साथ ही इसका यह अर्थ भी है केवल स्वामी (आर्य) वर्ग की भाषा और संस्कृति का प्रसार यूरोप तक नहीं हुआ था, उसकी सेवा में लगे हुए असुर (अनार्य) – द्रविड़ और मुंडारी बोलने वाले लोगों की भाषा और संस्कृति का समानांतर प्रसार हुआ था। द्रविड़ और चीनी में मिलने वाली समानता का कारण मुंडारी तत्वों का जिन्हें मेलानेशियन या दक्षिणदेशीय कहा जाता है – भारत सहित चीन और जापान तक प्रवेश रहा है।” तो बात अधिक सलीके से, संक्षेप में और बोधगम्य रूप में प्रस्तुत की जा सकती थी।